Tuesday, August 7, 2007

एक ग़ज़ल

कहीं इक मासूम नाज़ुक सी लड़की
बहुत खूबसूरत बहुत भोली भाली
मुझे अपने ख्वाबों की बाहों में पाकर
कभी नींद में मुस्कुराती तो होगी
उसी नींद में करवटें बदलकर
सरहाने से तकिया गिराती तो होगी
वही ख्वाब दिन की खामोशी में आकर
उसे मन ही मन में लुभाते तो होंगे
कई साज़ सीने की खामोशियों में
मेरी याद से झनझनाते तो होंगे
वो बेसाख्ता धीमे-धीमे सुरों में
मेरी धुन में कुछ गुनगुनाती तो होगी
मुझे कुछ लिखने वो बैठी तो होगी
मगर उंगलियां कंपकंपाती तो होंगी
क़लम हाथ से छूट जाता तो होगा
क़लम फिर से वो उठाती तो होगी
मेरा नाम अपनी निगाहों में लिखकर
वो दांतों में उंगली दबाती तो होगी
जुबां से कभी उफ्फ निकलती तो होगी
बदन धीमे-धीमे सुलगता तो होगा
कहीं के कहीं पांव पड़ते तो होंगे
ज़मीं पर दुपट्टा लटकता तो होगा
कभी सुबह को शाम कहती तो होगी
कभी रात को दिन बनाती तो होगी
कहीं एक मासूम, नाज़ुक सी लड़की
बहुत खूबसूरत मगर भोली भाली
......................................... रियाज़

और इसका जवाब

अजब पागल सी लड़की है
मुझे हर ख़त में लिखती है
मुझे तुम याद आते हो
तुम्हें मैं याद आती हूं
मेरी बातें सताती हैं
मेरी नींदें जगाती हैं
मेरी आंखें रुलाती हैं
सावन की सुनहरी धूप में
तुम अब भी टहलते हो
किसी खामोश रस्ते से कोई आवाज़ आती है
ठहरती सर्द रातों में
तुम अब भी छत पे जाते हो
फलक के सब सितारों को मेरी बातें सुनाते हो
किताबों से तुम्हारे इश्क में कोई कमी आई?
या मेरी याद की शिद्दत से आंखों में नमी आई?
अजब पागल सी लड़की है............
मुझे हर ख़त में लिखती है
जवाब मैं भी लिखता हूं-
...मेरी मसरूफियत देखो
सुबह से शाम आफिस में
चराग़े उम्र जलता है
फिर उसके बाद दुनिया की
कई मजबूरियां पांवों में
बेड़िया डाले रखती हैं
मुझे बेफिक्र चाहत से भरे सपने नहीं दिखते
टहलने, जागने, रोने की मोहलत ही नहीं मिलती
सितारों से मिले अब अर्सा हुआ....... नाराज़ हों शायद
किताबों से ताल्लुक़ मेरा.... अभी वैसे ही क़ायम है
फर्क इतना पड़ा है अब उन्हें अर्से में पढ़ता हूं
तुम्हें किसने कहा पगली....
तुम्हें मैं याद करता हूं
कि मैं खुद को भुलाने की
मुसलसल जुस्तजू में हूं
तुम्हें ना याद आने की
मुसलसल जुस्तजू में हूं
मगर ये जुस्तजू मेरी
बहुत नाकाम रहती है
मेरे दिन रात में अब भी
तुम्हारी शाम रहती है
मेरे लफ्जों की हर माला
तुम्हारे नाम रहती है
तुम्हें किसने कहा पगली......
तुम्हें मैं याद करता हूं
पुरानी बात है जो लोग
अक्सर गुनगुनाते हैं
’उन्हें हम याद करते हैं
जिन्हें हम भूल जाते हैं’
अजब पागल सी लड़की है....
मेरी मसरूफियत देखो
तुम्हें दिल से भुलाऊं तो
तुम्हारी याद आती है
तुम्हें दिल से भुलाने की
मुझे फुर्सत नहीं मिलती
और इस मसरूफ जीवन में
तुम्हारे ख़त का इक जुमला
’तुम्हें मैं याद आती हूं?’
मेरी चाहत की शिद्दत में
कमी होने नहीं देता
बहुत रातें जगाता है
मुझे सोने नहीं देता
सो अगली बार खत में
ये जुमला ही नहीं लिखना
अजब पागल सी लड़की है....
मुझे फिर भी ये लिखती है
मुझे तुम याद करते हो?
तुम्हें मैं याद आती हूं?
........................ रियाज़

Monday, August 6, 2007

गंगा जमुनी संस्कृति का वर्चस्व॥

बैंगलोर से रुखसत होते होते एक बेहद यादगार लमहा यादों के साथ जुड़ गया। और जो बात सामने आई वो ये कि हिंदुस्तान की आवाम के ज़हन में आज भी गंगा जमुनी संस्कृति का "वर्चस्व" कायम है। फ़्रेण्डशिप डे पर हिन्दू मुस्लिम एकता की इस से बेहतर मिसाल मिल पाना शायद ही मुमकिन हो। मौका था 'Beyond Boundaries - A Ghazal Concert' का। पाकिस्तान से गज़ल गायकी के बेताज बादशाह उस्ताद गुलाम अली साहब और गज़ल को एक आम आदमी तक पहुंचाने वाले पद्मभूषण जगजीत सिंह आज एक ही मंच पर मौजूद थे। शाम होते ही लोगों के हु्ज्जूम के हुज्जूम बैन्गलोर पैलेस ग्राउन्ड्स की ओर उमड़ पडे़। हम भी अपने अज़ीज़ों की टोली के साथ समय से काफ़ी पहले पहुंच गये थे, हमारे साथ फ़राज़, फ़ैसल, ठुकराल साहब, बिन्द्रा साहब, जाय दीप, सय्यद अफ़्फ़ान अली, और उनके दोस्त गोलू और म्रणाल थे। दोपहर का खाना नही हो पाया था तो फ़राज़ और हमने काफ़ी मशक्कत और जद्दो जहद के बाद कही से बिरयानी का बंदोबस्त किया ताकि कहीं भूखे ही ना मौसिकी का मज़ा लेना पडे़, और भाई भूखे पेट तो भजन भी नही होता!! खैर किसी तरह इन्तज़ार की इन्तेहा मुकर्रर हुई, और अमूमन देरी से शुरु करने के लिये मशहूर जगजीत सिंह ने समय से एक घंटे देरी से शाम 7 बजे प्रोग्राम शुरु करा। एक के बाद एक उन्होने अपने चिर परिचित अंदाज़ में गज़लें पेश कर के समां बांध दिया। किसी तरह उन्होने पब्लिक को 9।30 बजे तक बांधे रखा। उन्होने तमाम मशहूर गज़लें गाईं, हमारी उम्मीद थी कि शायद "गालिब" भी पेश करेंगे लेकिन शायद अब गालिब उनके बस में नही रहे, उन्होने बस फ़िल्मी गज़लें गा कर अपने प्रोग्राम का खात्मा कर दिया। केवल सागर सिद्दीकी की एक गज़ल ठुकराओ अब के प्यार करो में थोडी जान नज़र आई। (आफ़ द रेकार्ड-ये बात दीगर है कि इस गज़ल के साथ हम अपने आप को जोड़ कर देखते हैं)
अब बारी थी गज़ल गायकी के असल उस्ताद, उस्ताद गुलाम अली साहब की। हालांकि जगजीत को तालियों की कमी महसूस नही होने दी गई थी, लेकिन गुलाम साहब की एक छोटी सी झलक और पब्लिक एकदम पागल। तालियां थीं कि थमने का नाम ही नही ले रही थीं। खै़र उन्होने किसी तरह सबको काबू किया और शेर अर्ज़ किया, "कहता हूं शबो रोज़ तुझे भूल जाउंगा, शबो रोज़ ये ही बात भूल जाता हूं मैं" इसके बाद उन्होने पेश करी 'राशिद कामिल' की गज़ल,

कभी आह लभ पे मचल गई, कभी अश्क आंख से ढल गये।
ये तुम्हारे गम के चिराग हैं, कभी बुझ गये कभी जल गये॥

मै खयालो ख्वाब की महफ़िलें ना बा कद्र ए शौक सजा सका।

तुम्हारी एक नज़र के साथ ही मेरे सब इरादे बदल गये॥
फ़िर 'आगा बिस्मिल ' की मशहूर गज़ल,
"महफ़िल में बार बार किसी पर नज़र गई, हमने संभाली लाख मगर फ़िर उधर गई"
पेश करी।
श्रोता एक दम मंत्र मुग्ध, उनकी गायकी का लुत्फ़ उठाने में मसरूफ़ थे। इसके बाद उन्होने बखूबी गज़ल और नज़्म के बीच के फ़र्क को बेपर्दा करते हुए 'इब्ने इंशा' की नज़्म
" ये बातें झूठी बातें हैं, ये लोगों ने फ़ैलाई हैं" पेश करी।
उसके फ़ौरन बाद ही बैंगलोर की आवाम के लिये शेर अर्ज़ किया,
" तो क्या ये तय है तुझे उम्र भर नही मिलना, फ़िर ये उम्र ही क्यों तुझसे गर नही मिलना"
सबसे अहम बात ये थी कि उन्होने आखिर तक पब्लिक को बांधे रखा, बीच बीच में वो एक एक शेर के मायने भी समझा रहे थे। इसके बाद उन्होने, 'चुपके चुपके रात दिन, हंगामा है क्यों बरपा,मैं तेरी मस्त निगाही का भरम रख लूंगा, होश आया तो भी कह दूंगा मुझे होश नही आदि गज़लें पेश कीं। आखिर में उन्होने लेखक निर्देशक बासु चैटर्जी की फ़िल्म स्वामी का गीत " का करुं सजनी, आये ना बालम " पेश कर के महफ़िल को अंजाम तक पहुंचाया।
कुल मिला कर अपने अपने हुनर के माहिर फ़नकारों के साथ एक यादगार शाम बैंगलोर के नाम॥

Saturday, August 4, 2007

दिबांग के वर्चस्व का खात्मा !!

पता चला कि है कि एन डी टी वी के प्रबन्ध संपादक, दिबांग की छुट्टी की तैय्यारी
लगभग पूरी हो गई है। वो किन कारणों से हुई इसके बारे में तो पता चलना
अभी बाकी है लेकिन समस्त मीडिया जगत में आज इसी मुद्दे
को लेकर गप शप हुई और चाय की चुस्कियां तथा सिगरेट के कश लिये गये।
जानकारों की माने तो काफ़ी समय से उनके व्यवहार को लेकर चर्चायें आम रही हैं।
परन्तु उनके विशालकाय कद के सामने कोई कुछ बोल नही पाया।
आज उनकी छुट्टी की खबर ने कई लोगों को इस विषय पर बात करने का मौका दे दिया है।
कुछ लोगों के हिसाब से वो अक्खड़ मिजाज़ रखते थे, तो कई लोगों से उनके द्वारा
एन डी टी वी में महिला कर्मचारियों से अभद्रता पूर्ण व्यवहार के किस्से भी सुने गये थे।
अब सच्चाई या तो दिबांग जाने या फ़िर राम।
राजदीप सारदेसाई के जाने के बाद उन्हे काफ़ी ज़िम्मेदारी भरा पद दिया गया था,
जिसे उन्होने कुछ हद तक निभाया भी। खैर फ़िल्हाल जो लेटेस्ट खबर है उसके
अनुसार संजय अहिरवाल का प्रमोशन करा जा चुका है और वे अब
एन डी टी वी हिन्दी के एग्ज़ीक्यूटिव ऐडिटर हो गये हैं, वहीं दूसरी ओर मनोरंजन
भारती को राजनैतिक मामलों का संपादक बना दिया गया है।
विनोद दुआ अपनी जगह पर वाह्य सलाहकार की ज़िम्मेदारी बखूबी संभाले हुए हैं।
अब देखना ये है कि दिबांग खुद अपने पद से त्याग पत्र देते हैं
या फ़िर उन्हे बाहर का रास्ता दिखाया जाना अभी बाकी है.....
कुल मिलाकर एन डी टी वी से उनका "वर्चस्व" समाप्त हो चुका है।