Monday, April 22, 2013

5 वर्ष की बालिका उफ़्फ़्फ़! कलम टूट गई।


यत्र नार्यंतु पूज्यते रमंते तत्र देवता।
इस श्लोक के बारे में आपका क्या विचार है? मेरे खयाल से तो शायद ये इस श्लोक का भावार्थ है, कि जहां नारियों की पूजा होती है, वहां देवताओं का वास होता है, शायद आपने भी यही सुना पढ़ा होगा? अब जो सवाल उठता है वो ये है कि देवताओं के वास का निहितार्थ क्या है? क्या देवताओं के वास का किसी व्यक्ति विशेष को लाभ होता है, हानि होती है या कुछ भी नही होता? यदि आप लाभ की बात करेंगे तो मेरा तर्क (कु) ये होगा कि यदि मात्र नारी शक्ति की पूजा से देवता आपके सानिध्य को प्राप्त कर रहे हैं, या आपको उनका सानिध्य प्राप्त हो रहा है तो फ़िर सत्यनारायण, सुंदर काण्ड, राम कथा, दुर्गा पूजा, शिव पुराण, महामृत्युंजय, गीता पाठ और भी ना जाने कितनी आदि अनादि प्रकार की आराधनाओं मे जो समय या शक्ति (मुद्रा भी) लग रही है वो व्यर्थ तो नही है?
यदि आप ये कहते हैं इन पूजा आदि आडंबरों में अपनी भरपूर शक्ति झोंकने के बाद भी देवता तो नही आ रहे हैं, फ़िर भी हम नारी के स्वरूप और मनुष्य जीवन में उसके महत्व को बल देते हुये उसका आदर करना चाह रहे हैं तो अच्छा लगेगा।
खैर, भूमिका बांधने में काफ़ी वक्त लगा दिया अब बात मुद्दे की।
राम नवमी, हिंदुओं के लिये निर्मित एक ऐसा दिन जब पूरे साल की श्रद्धा, विश्वास, भक्ति और आराधना अपने चरमोत्कर्ष पर होती है, एक ऐसा समय जब कि श्रद्धा और विश्वास सिर्फ़ नारी शक्ति के पास ही नही अपितु अधिसंख्य विवाहित पुरुषों में भी प्रचुर मात्रा में होता है, परेशानी ये ही होती है कि उन अधिसंख्य पुरुषों का आडंबरों में ना चाहते हुये भी पड़ना अत्यधिक दुष्कर कृत्य होता है। वो बस नारी शक्ति को सम्मान देते हुये सुबह सवेरे नहा धो कर कन्याओं को जिमाने की प्रक्रिया में यथा संभव योगदान देने में लग जाते हैं। अब उन पैशाचिक पृवृत्तियों मे संलिप्त असुरों का क्या किया जाये जो कि कथा कहानियों के माध्यम से हमारे मानुष को कलंकित करने के प्रयास करते भी हैं और अपने कुप्रयासों में सफ़लता रूपी मां उन्हें अपनी गोद में उन्हे सुलाती भी है। ऐसा ही एक परम-आसुरी कृत्य भारत वर्ष की राजधानी कहे जाने वाले राज्य (दिल्ली) में सामने आया है, जहां नारी शक्ति का ही सार्वभौम राज्य है। वो चाहे सोनिया माइनो हो या शीला हो, कृत्य ऐसा है जो कि घोर निंदा की पात्रता तो रखता ही है, अपितु मृत्यु की खोज में भी लगा है। मेरा व्यक्तिगत मत है, कि मृत्यु रूपी स्वतंत्रता उस मनोज नामी पिशाच को सुलभ नही होनी चाहिये, जिसने ऐसा परम पैशाचिक कृत्य किया हो। एक ऐसा व्यक्ति जिसके कृत्यों के सम्मुख संकीर्णता भी शायद नतमस्तक है। कुल मिला कर इस व्यक्ति को या इस विकृत सोच को एक ऐसी मृत्यु की ओर ले जाना चाहिये जहां समष्टिगत रूप से, इस विकीर्ण और नितांत असंतुलित सोच को किसी भी प्रकार का पोषण ना मिल पाये।
5 वर्ष की बालिका उफ़्फ़्फ़!
कलम टूट गई। 307 Till Death!
अंकित माथुर...