Thursday, July 30, 2009

अमेरिकी कर्ज़ और ग़ालिब का फ़लसफ़ा

अंकित माथुर-

अमेरिका इकॉनमी की
दुनिया का ग़ालिब है। उनका एक शेर है- 'कर्ज की पीते थे मय...'। वैसे, इकॉनमी के इस फलसफे में अमेरिका ग़ालिब के उस शेर से भी थोड़ा आगे बढ़ गया है। कर्ज के मामले में वह मय तक ही सीमित नहीं रहा। पूरे बाजार को ही उसने कर्ज के खाते में डाल दिया। घर कर्ज पर। गाड़ी कर्ज पर। खाना-पीना कर्ज पर। कर्ज सिर्फ कर्ज नहीं रहा, अमेरिका की जीवन पद्धति बन गया।

अमेरिकी जीवन में एक रोचक संबंध बड़ा आम दिखाई देता है- 'लिव-इन रिलेशनशिप'। यह लिव-इन रिलेशनशिप कुछ और नहीं, उधार की शादी है। बड़ा आजाद संबंध है, जैसे ओपन इकॉनमी। जिस दिन लगे कि अब ज़िंदगी का बाकी उधार इस साथी के साथ नहीं चुकाना, तो उठाओ सूटकेस और खिसक लो। इस उधार की शादी में जो बच्चे पैदा हो जाएं, वे जिसके गले में पड़े रह जाएं, वही उनसे निपटे ब्याज की तरह।

हिंदुस्तान में एक कहावत चला करती थी- 'उधार प्रेम की कैंची है'। अमेरिका में उधार संबंध की पहचान बन गया। कौन था जिस पर किसी का कर्ज नहीं था। यहां बात एहसानों के कर्ज की नहीं, डॉलर के कर्ज की हो रही है। संबंध डॉलरों में बनने लगे। प्रेम डॉलरों में बरसने लगा - 'तुम उधार ले कर जितना खर्च करोगे, तुम्हारी प्रेमिका तुमसे उतना ही प्रेम करेगी। तुम उसे फूल दोगे, वह मुस्कराएगी। तुम उसे डिनर पर ले जाओगे, वह तुम्हारा चुंबन लेगी। तुम उसे हीरे का ब्रेसलेट दोगे, तो वह तुमसे शादी भले ही न करे, लेकिन शादी की कमी महसूस नहीं होने देगी।'

ग़ालिब कर्ज की मय पीते थे। शराब का सीधा संबंध उनके मूड से था। शायरी के मूड से। अमेरिका में कर्ज का सीधा संबंध मूड से ही है। बाजार के मूड से। ग़ालिब के कर्ज का फंडा सीधा सादा था : उधार लो और शराब पीओ। अमेरिका का फंडा भी सीधा सादा है : ग्राहक को कर्ज देकर ही वह माल खरीदेगा। ज्यादा कर्ज दो, वह ज्यादा माल खरीदेगा। ज्यादा माल बिकेगा तभी बाजार पनपेगा। बाजार पनपेगा तो अमेरिका पनपेगा।

कितना सरल फलसफा है - ग्राहक को उधार लेने के लिए उकसाओ। हर हालत में उधार दो। जरूरत हो तो उधार लेकर उधार दो। लोग कर्ज ले रहे थे। जिसे देखो वही कर्ज ले रहा था। बाजार बड़ा होता जा रहा था। समृद्धि के महल खड़े हो रहे थे। महल के खंभे मोटे और मजबूत दिखते थे। गुंबद बड़े शानदार थे।

लेकिन, अमेरिकी महल की पूरी नींव कर्ज पर टिकी थी। कर्ज की नींव पर खड़े महल को गिराने के लिए किसी भूकंप की जरूरत नहीं होती। बस, जरा सी मिट्टी खिसकना ही काफी होता है। कर्जदारों की इस लंबी श्रृंखला में बस किसी एक कड़ी के टूटने की देर थी। एक कमजोर कड़ी टूटी नहीं कि अमेरिकी मोतियों की माला बिखर गई।

ग़ालिब कर्ज लेते थे, शराब पीने के लिए। लोग उन्हें कर्ज दे भी देते थे। सब जानते हैं कि जो आदमी कर्ज लेकर शराब पीता है, वह कभी उधार चुका नहीं सकता। फिर भी लोग ग़ालिब को कर्ज देते थे। क्योंकि ग़ालिब में एक बहुत बड़ी खूबी थी कि वे शायरी लाजवाब करते थे। कर्ज देने वाले सोचते होंगे, 'ठीक है भई, ब्याज नहीं देता तो क्या हुआ, शेर तो बढ़िया कहता है। पैसे नहीं लौटाता, पर मन तो खुश कर देता है।'

क्या अमेरिकी बाजार ने कभी किसी का मन खुश किया? मन तो क्या खुश करता, अब सबका जीना जरूर दूभर कर रहा है। मेरे खयाल से ग़ालिब को उधार देना समाज की जिम्मेदारी थी, क्योंकि ग़ालिब संस्कृति को पोस रहे थे। संस्कृति को पोसने वालों के पास पैसों की कमी तो रहती है। वे पैसे भले ही उधार लेते हों, लेकिन इंसानियत के ऊपर एक बहुत बड़ा कर्ज छोड़ जाते हैं- सांस्कृतिक चेतना का कर्ज। ग़ालिब ने कहा था- 'कर्ज की पीते थे मय और समझते थे कि हां, रंग लाएगी हमारी फाकामस्ती एक दिन।'

ग़ालिब की फाकामस्ती से उपजा रंग तो आज तक चमचमा रहा है, जबकि अमेरिकी बाजार का कर्ज अब फाका करवाने की सोच रहा है

0 comments: