अंकित माथुर: समानांतर सी एक दुविधा है, सुविधा शून्य। कुहासा निरंतर है, क्षितिज शून्य, इस दुविधा पूर्ण वातावरण में ग्लानि के घने जंगलों से होती हुई उसकी संवेदनायें शायद मृत्युगामी होने से पूर्ण अस्तांचल के ताप से उद्वेलित हो कर भयंकर तरीके से छटपटा उठी हैं और नृत्य कर रही हैं।
इस छटपटाहट के कुहासे ने उसके अंत:करण के प्रदूषण को उसकी पराकाष्ठा से मिला दिया है। मुख से निकले शब्दों में मानो भगवान शंकर के गले में समाया हलाहल बाहर आ जाता हो। इस कडुवाहट से तो कुनैन की गोली मीठी। नयनाभिराम सी स्वप्न शृंखला को झंझना देने की अपनी चेष्टा मे तो वो सफ़ल ना हो पाई, परंतु विचारों की सलिल सरिता के बहाव में एक कंकरी फ़ेंक दी, उसके कंपन की ध्वनि ने निद्रा भंग की। सर्द गुलाबी सुबह को बंद आखों से अंगड़ाई लेते हुये वो उठा तो उसने पाया कि जल में एक प्रति ध्वनि गूंज रही है। और नदी का जल काला पड़ने लगा है एक अजीब सी दुर्गंध उसके नख तक पहुंच रही है, उसे इस दुर्गंध की खासी पहचान है, उसने उस ओर ध्यान ना देते हुये ध्यान लगाया और अपने नित्य कर्मों आदि में व्यस्त हो गया, दुर्गंध तीक्ष्ण होनी शुरु हुई वो और अधिक परिश्रम से अपने कार्यों में लग गया.....
संवेदनायें छटपटाहट का नृत्य करते हुये मृत्युगामी हो चली हैं.......
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