Monday, August 6, 2007

गंगा जमुनी संस्कृति का वर्चस्व॥

बैंगलोर से रुखसत होते होते एक बेहद यादगार लमहा यादों के साथ जुड़ गया। और जो बात सामने आई वो ये कि हिंदुस्तान की आवाम के ज़हन में आज भी गंगा जमुनी संस्कृति का "वर्चस्व" कायम है। फ़्रेण्डशिप डे पर हिन्दू मुस्लिम एकता की इस से बेहतर मिसाल मिल पाना शायद ही मुमकिन हो। मौका था 'Beyond Boundaries - A Ghazal Concert' का। पाकिस्तान से गज़ल गायकी के बेताज बादशाह उस्ताद गुलाम अली साहब और गज़ल को एक आम आदमी तक पहुंचाने वाले पद्मभूषण जगजीत सिंह आज एक ही मंच पर मौजूद थे। शाम होते ही लोगों के हु्ज्जूम के हुज्जूम बैन्गलोर पैलेस ग्राउन्ड्स की ओर उमड़ पडे़। हम भी अपने अज़ीज़ों की टोली के साथ समय से काफ़ी पहले पहुंच गये थे, हमारे साथ फ़राज़, फ़ैसल, ठुकराल साहब, बिन्द्रा साहब, जाय दीप, सय्यद अफ़्फ़ान अली, और उनके दोस्त गोलू और म्रणाल थे। दोपहर का खाना नही हो पाया था तो फ़राज़ और हमने काफ़ी मशक्कत और जद्दो जहद के बाद कही से बिरयानी का बंदोबस्त किया ताकि कहीं भूखे ही ना मौसिकी का मज़ा लेना पडे़, और भाई भूखे पेट तो भजन भी नही होता!! खैर किसी तरह इन्तज़ार की इन्तेहा मुकर्रर हुई, और अमूमन देरी से शुरु करने के लिये मशहूर जगजीत सिंह ने समय से एक घंटे देरी से शाम 7 बजे प्रोग्राम शुरु करा। एक के बाद एक उन्होने अपने चिर परिचित अंदाज़ में गज़लें पेश कर के समां बांध दिया। किसी तरह उन्होने पब्लिक को 9।30 बजे तक बांधे रखा। उन्होने तमाम मशहूर गज़लें गाईं, हमारी उम्मीद थी कि शायद "गालिब" भी पेश करेंगे लेकिन शायद अब गालिब उनके बस में नही रहे, उन्होने बस फ़िल्मी गज़लें गा कर अपने प्रोग्राम का खात्मा कर दिया। केवल सागर सिद्दीकी की एक गज़ल ठुकराओ अब के प्यार करो में थोडी जान नज़र आई। (आफ़ द रेकार्ड-ये बात दीगर है कि इस गज़ल के साथ हम अपने आप को जोड़ कर देखते हैं)
अब बारी थी गज़ल गायकी के असल उस्ताद, उस्ताद गुलाम अली साहब की। हालांकि जगजीत को तालियों की कमी महसूस नही होने दी गई थी, लेकिन गुलाम साहब की एक छोटी सी झलक और पब्लिक एकदम पागल। तालियां थीं कि थमने का नाम ही नही ले रही थीं। खै़र उन्होने किसी तरह सबको काबू किया और शेर अर्ज़ किया, "कहता हूं शबो रोज़ तुझे भूल जाउंगा, शबो रोज़ ये ही बात भूल जाता हूं मैं" इसके बाद उन्होने पेश करी 'राशिद कामिल' की गज़ल,

कभी आह लभ पे मचल गई, कभी अश्क आंख से ढल गये।
ये तुम्हारे गम के चिराग हैं, कभी बुझ गये कभी जल गये॥

मै खयालो ख्वाब की महफ़िलें ना बा कद्र ए शौक सजा सका।

तुम्हारी एक नज़र के साथ ही मेरे सब इरादे बदल गये॥
फ़िर 'आगा बिस्मिल ' की मशहूर गज़ल,
"महफ़िल में बार बार किसी पर नज़र गई, हमने संभाली लाख मगर फ़िर उधर गई"
पेश करी।
श्रोता एक दम मंत्र मुग्ध, उनकी गायकी का लुत्फ़ उठाने में मसरूफ़ थे। इसके बाद उन्होने बखूबी गज़ल और नज़्म के बीच के फ़र्क को बेपर्दा करते हुए 'इब्ने इंशा' की नज़्म
" ये बातें झूठी बातें हैं, ये लोगों ने फ़ैलाई हैं" पेश करी।
उसके फ़ौरन बाद ही बैंगलोर की आवाम के लिये शेर अर्ज़ किया,
" तो क्या ये तय है तुझे उम्र भर नही मिलना, फ़िर ये उम्र ही क्यों तुझसे गर नही मिलना"
सबसे अहम बात ये थी कि उन्होने आखिर तक पब्लिक को बांधे रखा, बीच बीच में वो एक एक शेर के मायने भी समझा रहे थे। इसके बाद उन्होने, 'चुपके चुपके रात दिन, हंगामा है क्यों बरपा,मैं तेरी मस्त निगाही का भरम रख लूंगा, होश आया तो भी कह दूंगा मुझे होश नही आदि गज़लें पेश कीं। आखिर में उन्होने लेखक निर्देशक बासु चैटर्जी की फ़िल्म स्वामी का गीत " का करुं सजनी, आये ना बालम " पेश कर के महफ़िल को अंजाम तक पहुंचाया।
कुल मिला कर अपने अपने हुनर के माहिर फ़नकारों के साथ एक यादगार शाम बैंगलोर के नाम॥

8 comments:

  • बहुत बढ़िया है अंकित, कीप इट अप........

    August 6, 2007 at 3:10 PM

  • प्रोत्साहन के लिये धन्यवाद, यशवंत भाई!!

    अंकित माथुर...

    August 6, 2007 at 7:37 PM

  • गुज़रते लम्हों में सदियां तलाश करता हूं
    ये मेरी प्यास है नदियां तलाश करता हूं
    यहां तो लोग गिनाते हैं खूबियां अपनी
    मैं अपने आपमें कमियां तलाश करता हूं।

    शाबास अंकित, शानदार प्रयास और इसे जारी रखना। तुमने टिप्पणी चाही है- लेकिन मेरे पास कहने को कुछ बचा नहीं, जो मन में पहली बार उभरा उसे ही बक देता हूं-
    तुम्हारी इस विशेषता को देखकर मुझे खुद पर शर्मिंदगी हो रही है।
    लगे रहो छोटे भाई।
    शुभकामनाएं

    August 6, 2007 at 8:15 PM

  • आपने ग़ुलाम अली को बेनाम बादशाह लिखा है।
    वो ग़ज़ल सम्राट हैं और बेताज बादशाह हैं। इसे ठीक कर लेना।

    August 6, 2007 at 8:21 PM

  • रियाज़ भाई इतनी बारीकी से पढ़ने और
    त्रुटि सुधार के लिये सादर धन्यवाद...

    अंकित माथुर...

    August 6, 2007 at 8:24 PM

  • I agree that Gulam Ali was better than Jagjit Singh and Jagjit has lost his charm in singing Ghalib.

    Ali's ghazals are very well wirtten.Reading the page was like living the evening again.

    August 6, 2007 at 8:50 PM

  • i was actually jealous that i was not there with you as you know i am a huge fan of ghazals. But after reading your post...i am a little less jealous because the way you have described the evening is so realistic that i would agree to sumit on that....it's like living the evening myself.

    Good work.

    August 6, 2007 at 8:55 PM

  • Simply Put Ankit... this is what i call UNBIASED VERSION...very well described... ye baat sach hai ki kal Ghulam Ali sahab Jagjit singh ji se kaheen age nikal gaye... communication in any way should be 2 way...this was missing in Jagjit's prog yesterday...

    This was my second live show with Jagjit...I am a tremendous fan of him but the boss seems to have lost the charm...

    Last not the least Missed Ghalib

    Cheers,
    Faisal

    August 6, 2007 at 11:09 PM