Friday, November 30, 2007

शुक्रवार.३० नवम्बर,२००७


कोई रुनझुन सुनाई पड़ रही है.चवन्नी के कानों में सुरीली झंकार की अनुगूंज है.कोई दोनों बाहें फैलाये न्योता दे रहा है.न..न.. शाहरुख़ खान नही हैं.उनके आमंत्रण में झंकार नही रहती.मोहक मुस्कान की मलिका और एक ठुमके से दर्शकों का दिल धड़का देनेवाली धक् धक् गर्ल आज देश भर के सिनेमाघरों में नया जलवा दिखाने आ रही हैं.जी हाँ चवन्नी माधुरी दीक्षित की ही बात कर रहा है।


चवन्नी की सिफारिश है कि आप माधुरी के न्योते को स्वीकार करें.लगभग पांच सालों के बाद हिन्दी सिनेमा के रुपहले परदे पर जल्वाफ्रोश हो रही माधुरी का आकर्षण कम नहीं हुआ है.हालांकि इस बीच हीरोइनों का अंदाज बदल गया है और सारी की सारी हीरोइनें एक जैसी लगती और दिखती हैं,वैसे में माधुरी दीक्षित का निराला अंदाज पसंद आना चाहिए।


माधुरी की आजा नचले एक लड़की दीया कि कहानी है,जो अपने गुरु की संस्था को किसी भी सूरत में बचाना चाहती है.हिन्दी फिल्मों में उम्रदराज हीरोइनों के लिए जगह नहीं होती.अमिताभ बच्चन के पहले हीरो के लिए भी नही होती थी.अमिताभ बच्चन के लिए केन्द्रीय किरदार लिखे गए.शाबान आज़मी के लिए गॉडमदर लिखी गयी थी.जाया बच्चन हजार चौरासिवें की माँ में उपयुक्त लगी थीं। नरगिस ने मदर इंडिया की थी.वैसे ही माधुरी दीक्षित के लिए आजा नचले लिखी गयी है.इस फिल्म के सहयोगी कलाकार भी खास हैं.रघुबीर यादव,अखिलेन्द्र मिश्र,विनय पाठक ,कुणाल कपूर और कोंकणा सेन को दमदार भूमिकाओं में देखना रोचक होगा।


और हाँ,भूल कर भी गौरी देखने न जाये.अजन्मे बच्चे की भूता कहानी गर्भपात का विरोध करती है.२१ वीं सदी में कैसे इस तरह की धारणा पर फिल्म बनाईं जा सकती है.चवन्नी को लगता था कि अतुल कुलकर्णी समझदार ऐक्टर हैं,फिर ऐसी ग़लती कैसे कर बैठे अतुल.

Thursday, November 29, 2007

हैकर्स के कारनामे: बच कर रहियेगा जनाब!!!


कल मेरे रेडिफ़ मेल के अकाउंट पर आई सी आई सी आई बैंक की ओर से एक ई मेल आई हुई थी। ईमेल में कहा गया है कि---
"During our regularly scheduled account maintenance andverification procedures, we were unable to verify your account information ।It has come to our attention that your account information needs to be updated as part of our continuing commitment to protect your account and to reduce the instance of fraud on our website"
जिस बैंक के नाम से इसने मुझे ईमेल भेजी गई उस बैंक में मेरी ईमेल आईडी दूसरी है
ना कि जिस पर ये ई मेल भेजी गई है, और ऐसी कैसी वेरिफ़िकेशन है जो कि ये
फ़ोन के ज़रिये नही पूछ सकते। इनकी अटेंशन में ये कौन सी बाते आई जिनसे कि
इन्हे लगा कि मेरे अकाऊंट की डीटेल अपडेट होनी चाहिये। ई मेल का मजमून देखते ही
मैं समझ गया कि ये किसी हैकर की करामात है, और ईमेल पर अकाऊंटवेरिफ़िकेशन
के ज़रिये वो मेरे अकाऊंट की डीटेल हासिल करना चाह रहा है।ईमेल के ओरिजिनेशन
पाईंट के बारे में मैने थोडी R&D करी तो मालूम हुआ कि ईमेलफ़्रांस के पैरिस शहर के
इस पते से आई है।
Agence des Medias Numeriques12/14,
Rond-point des champs elysees75008 Paris,
France+33 8 92 55 66 ७७
मैने अपने इनबाक्स का चित्र साथ में लगाया है कृपया देखें।
अगर आप इस ईमेल को साधारण रूप में देखें तो पता चलेगा कि ये ईमेल इस आई
डी से आई है customercare@icicibank.com मगर यदि आप इस ईमेल का जवाब देंगे तो
यह ईमेल जायेगी इस पते परhttpd@paris51.amenworld.comहै ना मज़ेदार बात?
अब एक आम आदमी तो शायद ये ही सोच कर जवाब भेज देगा या इनके बताये गये
प्रोसीजर्स follow करेगा। कि ICICI बैंक से ई मेल आई है, तो सही ही होगी,और यहीं
से वो इन्टर्नेट फ़्राड के घेरे में आ जाता है। और यहीं से शुरुआत होती है साइबर क्राईम की।
इन सभी तकनीको से हैकर्स को आपके अकाउंट की जानकारी तो मिल ही जाती है, साथही वो आपके आई पी एड्रेस को भी ट्रेस कर के उसे हैक कर सकते हैं।
आपके कम्प्यूटर में सुरक्षित जानकारी को भी चुराया जा सकता है।
इसी लिये किसी भी बैंक से आई ई मेल का जवाब देने से पहले एक बार उस बैंक
की कस्टमर सर्विस पर फ़ोन ज़रूर करें, अव्वल तो बैंको से ऐसी मेल आती ही नही,
बैंको सेट्रांसैक्शन आदि के एलर्ट आदि आते हैं। एक छोटा सा उदाहरण दे रहा हूं कि
कैसे आपके पास एक झूठी आई डी से मेल भेजी जा सकती है।
---जो ईमेल भेजी जायेगी वो जायेगी इस पते को, abc@abc.com और आयेगी इस
आईडी से customercare@---.com
इस के लिये आपको nslookup नाम के एक छोटे से प्रोग्राम की आवश्यकता होगी।
अब पहला काम है आपको abc। कॉम में यूज़र abc के खाते की जानकारी हासिल करना।एक स्टैण्डर्ड *निक्स सिस्टम पर आपको ये जानकारी निम्नांकित रूप से मिलसकती है॥
% /usr/sbin/nslookup -q=MX abc।com
Resolved abc।com to 111।111।111।111
[snip]mail exchanger: easy।abc।com[snip]
%मेल एक्स्चेंजर का डाटा सर्च करते हुए।इस प्रोग्राम को रन करने के बाद काफ़ी डाटा आपके
पास आ जायेगा, अब आपको मेल एक्स्चेंजर के बारे में पता करना होगा,
सामान्यत: कई मेल एक्स्चेंजर होते हैं, लेकिन हमें पोर्ट न० 25 से कनेक्ट करना होगा।
% telnet easy.abc.com 25
Connecting to easy.abc.com....Escape character is `]
abc ESMTP version 6.6.6
अब आप अन्दर हैं॥

अब आपको कम्प्यूटर को बताना है कि आप कौन हैं और कहां ईमेल भेजनी है॥
HELO ---.com 250 OK MAIL FROM: < customercare@---.com>
250 customercare@---.com is syntactically correct
RCPT TO: <abc@abc.com>250 abc@abc.com is syntactically correct
आपका काम हो गया..
देखिये सैंपल मेल...DATA354 Ready for data - end input with a "." on a new line
Date: 28/11/2007Time: 8:22:08 (GMT+360)
From: मि० फ़र्ज़ी <customercare@---.com>
To: abc <abc@abc.com>Subject: मैं आपके खाते की जानकारी उडाना चाहता हूं.

उपरोक्त ईमेल में आप जो चाहे लिख कर भेज सकते हैं जिसे चाहें जिस भी
किसी आईडी से चाहें मेल भेजी जा सकती है। जिस भी कम्प्यूटर से आप कनेक्ट करेंगे
वो सामान्यत: एक ही भाषा का प्रयोग करते हैं किंतु फ़िर भी दिखने में
शायद भिन्न हो सकते हैं, और किसी भी कम्प्यूटर से कनेक्ट होने के बाद आप
सोच समझ कर लिखें क्योंकि गलत लिखे जाने की स्थिति में आप डिलीट की
का प्रयोग नही कर सकते हैं आपको दुबारा से कनेक्शन स्थापित करना होगा।
ये सब दिखने में भले ही सरल लगे लेकिन उतना सरल भी नही है।
इसी लिये उपरोक्त उदाहरण मात्र जानकारी भर के लिये हैं प्रयोग हेतु नही...
धन्यवाद
अंकित माथुर...

Wednesday, September 5, 2007

साझी संस्कृति का वर्चस्व!!

बैंगलोर से दिल्ली जाने की खुशी आज गम में तब्दील हुई नज़र आ रही है। एक साल। जी हां पूरा एक साल बैंगलोर में बिताने के बात आज दिल्ली जाने की सिर्फ़ सोच से एक अजीब सा एहसास हो रहा है।
एक साल कोई कम समय नही होता है, इस बात को अभी तक सिर्फ़ सुनता आया था। आज बंगलोर छोडते समय इस बात का मुकम्मल एह्सास हो रहा है।कभी भी किसी के भी साथ दारू पीने का प्लान, जब मर्ज़ी किसी को भी खडा कर देनाकि भाई चल सिगरेट पीने चल रहे हैं, कभी भी किसी वीकेण्ड पर टीम डिनर पर जाना।कभी चिकन काउन्टी , कभी फ़ोरम माल का पिज़्ज़ा हट, मैकडोनल्ड्स, साहिब सिंह सुल्तान, फ़िरंगी पानी, पैरामाऊन्ट रेस्टौरेण्ट आदि जगहों पर चले जाना।कभी किसी को कहना कि भाई आओ आज पूल खेलने चल रहे हैं, आज टेबल टेनिस खेलने का मन है।रोहित अक्केवार, रिषी भाई, ईश ठुकराल, दर्शन बिडप्पा, जाय दीप, अर्शद, सय्यद अफ़्फ़ान अली, आदि ना जाने कितने ही दोस्तो से बिछडने का आज गम सा मालूम दे रहा है।अमरीका से आने के बाद जब औरेकल ज्वाईन करा तो पहली बार महसूस हुआ था कि भाई हमारा भारत देश भी किसी से कम नही है।औटोमैटिक दरवाज़े, लिफ़्ट, सेंसर टेक्नोलोजी और भी ना जाने क्या क्या। हमारा आफ़िस सभी आधुनिक सुख सुविधाओं से सम्पूर्ण है।मुझे आज भी अच्छी तरह याद है २८ जुलाई का वो दिन, जब मैं पहली बार औरेकल में अपने फ़ाईनल इन्टर्व्यू के लिये आया था। मेरी बात अपने मैनेजर के साथ हुई औरउसने मेरी सैलरी के बारे में बताया और बोला कि हम जल्दी ही आपका आफ़र लेटर रिलीज़ कर देंगे, आप अपने इंतज़ामात कर लें।कुछ ही दिन बाद मेरा आफ़र लेटर आ गया जिसमे कि 31 अगस्त 2006 को औरेकल ज्वाईन करने को कहा गया था। मैने भी चट्पट पिछली कम्पनी से इस्तीफ़ा दिया और चल पडा बैंगलोर की ओर। हालांकि मेरे लिये ये एक बेहद मुश्किल फ़ैसला था, चूंकि मेरे माता पिता की सेहत कुछ अच्छी नही रहती।रहने का भी कोई इंतज़ाम नही था, लेकिन फ़िर भी मैने हिम्मत की और आ गया बैंगलोर। आने के बाद एक महीना अपने भाई के साथ रहा।
यहां आकर महसूस किया कि सम्पूर्ण भारत वर्ष में हम चाहे जहां भी चले जायें लेकिन भारतीयता और मानवीय सहिष्णुता का वर्चस्व आज भी कायम है।मेरे यहां के साथियों ने मेरी ज़बरद्स्त मदद की, मुझे ये एह्सास ही नही होने दिया कि मै एक अजनबी प्रदेश में आ गया हूं। टीना कुरियन, संगीता स्वामी, प्रीथम पूवानी, नागराज शर्मा, ईश ठुकराल आदि सभी मित्रो ने काफ़ी मदद की। कहना ना होगा कि सभी लोग टीम स्पिरिट से पूर्ण रूप से भरे हुए थे।एक के बाद एक क्वार्टर बीत गये, टार्गेट कभी अचीव हुए कभी नही हुए, लेकिन कभी भी नकारात्मक रवैये का सामना नही करना पडा।
सबसे उपर हमारे ग्रुप के जनरल मैनेजर राम शर्मा वाराणसी थे। उन्होने सभी का यथोचित मार्गदर्शन किया और सभी को एक सकारात्मक विचारधारा को ग्रहण करने का अवसर प्रदान किया।हर महीने एक बार मै दिल्ली आता था, जहां से सहारनपुर का रास्ता सिर्फ़ चार घण्टे का है।
पिछले साल रमज़ान के मुकद्दस महीने में मेरे सभी मुस्लिम दोस्त मुझे अपने साथ इफ़्तार और सहरी के लिये जबरन ले जाया करते थे। उनके प्यार और खुलूस ने मुझे जैसे बांध दिया था उन सभी के साथ। यहां मै अगर जकी भाई का ज़िक्र ना करू तो बात अधूरी सी रह जायेगी, ज़की भाई हैदराबाद से ताल्लुक रखते हैं और कदम ब कदम हम लोगो ने साथ साथ काम किया है।एक ज़की भाई ही थे जिन्होने मुझे पूल खेलना सिखाया था।अनुपम श्रीवास्तव एक और एसी शख्सियत थे जिनके बिना औरेकल मे एक साल पूरा करना काफी दुष्कर कार्य था। हालांकि ईश ठुकराल अब मैनेजर बन चुके हैं लेकिन फ़िर भी आपसी खुलूस और मोहब्बत का वो जज़्बा आज भी कायम है।उन्होने काम की बारीकियों से मुझे अवगत कराया और समझाया कि कैसे मै अपने कार्य को कुशलता पूर्वक पूर्ण कर सकता हूं। कुल मिलाकर इतना ही कह सकता हूं कि ये सिर्फ़ भारत वर्ष ही है,
जहां आपसी मेल जोल और सहिष्णुता का वर्चस्व आज भी कायम है।

Tuesday, August 7, 2007

एक ग़ज़ल

कहीं इक मासूम नाज़ुक सी लड़की
बहुत खूबसूरत बहुत भोली भाली
मुझे अपने ख्वाबों की बाहों में पाकर
कभी नींद में मुस्कुराती तो होगी
उसी नींद में करवटें बदलकर
सरहाने से तकिया गिराती तो होगी
वही ख्वाब दिन की खामोशी में आकर
उसे मन ही मन में लुभाते तो होंगे
कई साज़ सीने की खामोशियों में
मेरी याद से झनझनाते तो होंगे
वो बेसाख्ता धीमे-धीमे सुरों में
मेरी धुन में कुछ गुनगुनाती तो होगी
मुझे कुछ लिखने वो बैठी तो होगी
मगर उंगलियां कंपकंपाती तो होंगी
क़लम हाथ से छूट जाता तो होगा
क़लम फिर से वो उठाती तो होगी
मेरा नाम अपनी निगाहों में लिखकर
वो दांतों में उंगली दबाती तो होगी
जुबां से कभी उफ्फ निकलती तो होगी
बदन धीमे-धीमे सुलगता तो होगा
कहीं के कहीं पांव पड़ते तो होंगे
ज़मीं पर दुपट्टा लटकता तो होगा
कभी सुबह को शाम कहती तो होगी
कभी रात को दिन बनाती तो होगी
कहीं एक मासूम, नाज़ुक सी लड़की
बहुत खूबसूरत मगर भोली भाली
......................................... रियाज़

और इसका जवाब

अजब पागल सी लड़की है
मुझे हर ख़त में लिखती है
मुझे तुम याद आते हो
तुम्हें मैं याद आती हूं
मेरी बातें सताती हैं
मेरी नींदें जगाती हैं
मेरी आंखें रुलाती हैं
सावन की सुनहरी धूप में
तुम अब भी टहलते हो
किसी खामोश रस्ते से कोई आवाज़ आती है
ठहरती सर्द रातों में
तुम अब भी छत पे जाते हो
फलक के सब सितारों को मेरी बातें सुनाते हो
किताबों से तुम्हारे इश्क में कोई कमी आई?
या मेरी याद की शिद्दत से आंखों में नमी आई?
अजब पागल सी लड़की है............
मुझे हर ख़त में लिखती है
जवाब मैं भी लिखता हूं-
...मेरी मसरूफियत देखो
सुबह से शाम आफिस में
चराग़े उम्र जलता है
फिर उसके बाद दुनिया की
कई मजबूरियां पांवों में
बेड़िया डाले रखती हैं
मुझे बेफिक्र चाहत से भरे सपने नहीं दिखते
टहलने, जागने, रोने की मोहलत ही नहीं मिलती
सितारों से मिले अब अर्सा हुआ....... नाराज़ हों शायद
किताबों से ताल्लुक़ मेरा.... अभी वैसे ही क़ायम है
फर्क इतना पड़ा है अब उन्हें अर्से में पढ़ता हूं
तुम्हें किसने कहा पगली....
तुम्हें मैं याद करता हूं
कि मैं खुद को भुलाने की
मुसलसल जुस्तजू में हूं
तुम्हें ना याद आने की
मुसलसल जुस्तजू में हूं
मगर ये जुस्तजू मेरी
बहुत नाकाम रहती है
मेरे दिन रात में अब भी
तुम्हारी शाम रहती है
मेरे लफ्जों की हर माला
तुम्हारे नाम रहती है
तुम्हें किसने कहा पगली......
तुम्हें मैं याद करता हूं
पुरानी बात है जो लोग
अक्सर गुनगुनाते हैं
’उन्हें हम याद करते हैं
जिन्हें हम भूल जाते हैं’
अजब पागल सी लड़की है....
मेरी मसरूफियत देखो
तुम्हें दिल से भुलाऊं तो
तुम्हारी याद आती है
तुम्हें दिल से भुलाने की
मुझे फुर्सत नहीं मिलती
और इस मसरूफ जीवन में
तुम्हारे ख़त का इक जुमला
’तुम्हें मैं याद आती हूं?’
मेरी चाहत की शिद्दत में
कमी होने नहीं देता
बहुत रातें जगाता है
मुझे सोने नहीं देता
सो अगली बार खत में
ये जुमला ही नहीं लिखना
अजब पागल सी लड़की है....
मुझे फिर भी ये लिखती है
मुझे तुम याद करते हो?
तुम्हें मैं याद आती हूं?
........................ रियाज़

Monday, August 6, 2007

गंगा जमुनी संस्कृति का वर्चस्व॥

बैंगलोर से रुखसत होते होते एक बेहद यादगार लमहा यादों के साथ जुड़ गया। और जो बात सामने आई वो ये कि हिंदुस्तान की आवाम के ज़हन में आज भी गंगा जमुनी संस्कृति का "वर्चस्व" कायम है। फ़्रेण्डशिप डे पर हिन्दू मुस्लिम एकता की इस से बेहतर मिसाल मिल पाना शायद ही मुमकिन हो। मौका था 'Beyond Boundaries - A Ghazal Concert' का। पाकिस्तान से गज़ल गायकी के बेताज बादशाह उस्ताद गुलाम अली साहब और गज़ल को एक आम आदमी तक पहुंचाने वाले पद्मभूषण जगजीत सिंह आज एक ही मंच पर मौजूद थे। शाम होते ही लोगों के हु्ज्जूम के हुज्जूम बैन्गलोर पैलेस ग्राउन्ड्स की ओर उमड़ पडे़। हम भी अपने अज़ीज़ों की टोली के साथ समय से काफ़ी पहले पहुंच गये थे, हमारे साथ फ़राज़, फ़ैसल, ठुकराल साहब, बिन्द्रा साहब, जाय दीप, सय्यद अफ़्फ़ान अली, और उनके दोस्त गोलू और म्रणाल थे। दोपहर का खाना नही हो पाया था तो फ़राज़ और हमने काफ़ी मशक्कत और जद्दो जहद के बाद कही से बिरयानी का बंदोबस्त किया ताकि कहीं भूखे ही ना मौसिकी का मज़ा लेना पडे़, और भाई भूखे पेट तो भजन भी नही होता!! खैर किसी तरह इन्तज़ार की इन्तेहा मुकर्रर हुई, और अमूमन देरी से शुरु करने के लिये मशहूर जगजीत सिंह ने समय से एक घंटे देरी से शाम 7 बजे प्रोग्राम शुरु करा। एक के बाद एक उन्होने अपने चिर परिचित अंदाज़ में गज़लें पेश कर के समां बांध दिया। किसी तरह उन्होने पब्लिक को 9।30 बजे तक बांधे रखा। उन्होने तमाम मशहूर गज़लें गाईं, हमारी उम्मीद थी कि शायद "गालिब" भी पेश करेंगे लेकिन शायद अब गालिब उनके बस में नही रहे, उन्होने बस फ़िल्मी गज़लें गा कर अपने प्रोग्राम का खात्मा कर दिया। केवल सागर सिद्दीकी की एक गज़ल ठुकराओ अब के प्यार करो में थोडी जान नज़र आई। (आफ़ द रेकार्ड-ये बात दीगर है कि इस गज़ल के साथ हम अपने आप को जोड़ कर देखते हैं)
अब बारी थी गज़ल गायकी के असल उस्ताद, उस्ताद गुलाम अली साहब की। हालांकि जगजीत को तालियों की कमी महसूस नही होने दी गई थी, लेकिन गुलाम साहब की एक छोटी सी झलक और पब्लिक एकदम पागल। तालियां थीं कि थमने का नाम ही नही ले रही थीं। खै़र उन्होने किसी तरह सबको काबू किया और शेर अर्ज़ किया, "कहता हूं शबो रोज़ तुझे भूल जाउंगा, शबो रोज़ ये ही बात भूल जाता हूं मैं" इसके बाद उन्होने पेश करी 'राशिद कामिल' की गज़ल,

कभी आह लभ पे मचल गई, कभी अश्क आंख से ढल गये।
ये तुम्हारे गम के चिराग हैं, कभी बुझ गये कभी जल गये॥

मै खयालो ख्वाब की महफ़िलें ना बा कद्र ए शौक सजा सका।

तुम्हारी एक नज़र के साथ ही मेरे सब इरादे बदल गये॥
फ़िर 'आगा बिस्मिल ' की मशहूर गज़ल,
"महफ़िल में बार बार किसी पर नज़र गई, हमने संभाली लाख मगर फ़िर उधर गई"
पेश करी।
श्रोता एक दम मंत्र मुग्ध, उनकी गायकी का लुत्फ़ उठाने में मसरूफ़ थे। इसके बाद उन्होने बखूबी गज़ल और नज़्म के बीच के फ़र्क को बेपर्दा करते हुए 'इब्ने इंशा' की नज़्म
" ये बातें झूठी बातें हैं, ये लोगों ने फ़ैलाई हैं" पेश करी।
उसके फ़ौरन बाद ही बैंगलोर की आवाम के लिये शेर अर्ज़ किया,
" तो क्या ये तय है तुझे उम्र भर नही मिलना, फ़िर ये उम्र ही क्यों तुझसे गर नही मिलना"
सबसे अहम बात ये थी कि उन्होने आखिर तक पब्लिक को बांधे रखा, बीच बीच में वो एक एक शेर के मायने भी समझा रहे थे। इसके बाद उन्होने, 'चुपके चुपके रात दिन, हंगामा है क्यों बरपा,मैं तेरी मस्त निगाही का भरम रख लूंगा, होश आया तो भी कह दूंगा मुझे होश नही आदि गज़लें पेश कीं। आखिर में उन्होने लेखक निर्देशक बासु चैटर्जी की फ़िल्म स्वामी का गीत " का करुं सजनी, आये ना बालम " पेश कर के महफ़िल को अंजाम तक पहुंचाया।
कुल मिला कर अपने अपने हुनर के माहिर फ़नकारों के साथ एक यादगार शाम बैंगलोर के नाम॥

Saturday, August 4, 2007

दिबांग के वर्चस्व का खात्मा !!

पता चला कि है कि एन डी टी वी के प्रबन्ध संपादक, दिबांग की छुट्टी की तैय्यारी
लगभग पूरी हो गई है। वो किन कारणों से हुई इसके बारे में तो पता चलना
अभी बाकी है लेकिन समस्त मीडिया जगत में आज इसी मुद्दे
को लेकर गप शप हुई और चाय की चुस्कियां तथा सिगरेट के कश लिये गये।
जानकारों की माने तो काफ़ी समय से उनके व्यवहार को लेकर चर्चायें आम रही हैं।
परन्तु उनके विशालकाय कद के सामने कोई कुछ बोल नही पाया।
आज उनकी छुट्टी की खबर ने कई लोगों को इस विषय पर बात करने का मौका दे दिया है।
कुछ लोगों के हिसाब से वो अक्खड़ मिजाज़ रखते थे, तो कई लोगों से उनके द्वारा
एन डी टी वी में महिला कर्मचारियों से अभद्रता पूर्ण व्यवहार के किस्से भी सुने गये थे।
अब सच्चाई या तो दिबांग जाने या फ़िर राम।
राजदीप सारदेसाई के जाने के बाद उन्हे काफ़ी ज़िम्मेदारी भरा पद दिया गया था,
जिसे उन्होने कुछ हद तक निभाया भी। खैर फ़िल्हाल जो लेटेस्ट खबर है उसके
अनुसार संजय अहिरवाल का प्रमोशन करा जा चुका है और वे अब
एन डी टी वी हिन्दी के एग्ज़ीक्यूटिव ऐडिटर हो गये हैं, वहीं दूसरी ओर मनोरंजन
भारती को राजनैतिक मामलों का संपादक बना दिया गया है।
विनोद दुआ अपनी जगह पर वाह्य सलाहकार की ज़िम्मेदारी बखूबी संभाले हुए हैं।
अब देखना ये है कि दिबांग खुद अपने पद से त्याग पत्र देते हैं
या फ़िर उन्हे बाहर का रास्ता दिखाया जाना अभी बाकी है.....
कुल मिलाकर एन डी टी वी से उनका "वर्चस्व" समाप्त हो चुका है।

Monday, July 30, 2007

वर्चस्व की लड़ाई

हिन्दी के शब्दकोष का काफ़ी असरदार और वज़नदार शब्द है , वर्चस्व!
कल रात्रि ज़ी सिनेमा पर अर्शद वारसी और महिमा चौधरी द्वारा अभिनीत फ़िल्म "सहर" देखी,
इस फ़िल्म में पूर्वी उत्तर प्रदेश में हावी कोयले के ठेकेदारों में आपसी
वर्चस्व स्थापित करने को लेकर छिडी़ जंग को बखूबी दर्शाया गया है।
फ़िल्म देखने के बाद सोचा कि आखिर कैसी ताकत है, इस शब्द में?
हम सब भी तो कहीं ना कहीं अपना वर्चस्व स्थापित करने हेतु लगातार प्रयासरत हैं।
हम किस क्षेत्र में वर्चस्व की लड़ाई लड़ रहे है?
क्या हम किसी ना किसी रुप से अपना अपना वर्चस्व स्थापित नही करना चाहते?
और यदि चाहते हैं तो क्यों? पत्रकार अपने क्षेत्र में, व्यवसायी अपने क्षेत्र में,
डाक्टर अपने क्षेत्र में, उद्यमी अपने क्षेत्र में, टाटा अपने तो अंबानी अपने क्षेत्र में...
कहीं भाषा का वर्चस्व, कहीं जाति का वर्चस्व,
कहीं अपराध का वर्चस्व कहीं राजनीति का वर्चस्व,
कहीं आतंकवाद का तो कहीं शांति का वर्चस्व...
हम सभी इस वर्चस्व की लड़ाई में उलझे हुए हैं। किसी को अपना वर्चस्व स्थापित करने में
कठिनाई होती है, कोई आराम से अपने अपना प्रभुत्व स्थापित कर लेता है।
आखिर ऐसा क्या है इस वर्चस्व में जो यह हम सभी को अपनी ओर खींच लेता है?
क्यों हम इस वर्चस्व की लड़ाई को निरन्तर लड़ते रहते हैं।

आप सभी सुधी पाठक कुछ कहना चाहेंगे? यदि हां तो अपनी टिप्पणी अवश्य छोडें..

धन्यवाद
अंकित माथुर...

http://varchassv.blogspot.com/